बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

गाँव और मैं - भाग १


 vichaarveethika.blogspot.in/(कल्पना की उड़ान शब्दों में)" या  "paankhiaurman.blogspot.in (प्रवाह जो रुकता नहीं)" जैसे सम्रिध्ह ब्लाग्स ( रचनाओं का अम्बार है इनमे ) को ना चुनकर मैंने " मन और पलाश " को चुना इस विषय की श्रृंखला के लिए...वैसे मैंने सोचा था की मन और पलाश में सुगंध और पुष्प संसार से सुवासित कवित्त ही होगा मगर ध्यान से सोचा तो येही लगा की आखिर गाँव की माटी और उसकी भीनी भीनी खुशबू से तरबतर वातावरण पलाश और गुलमोहर के रंगों सी यादों के लिए मेरा येही ब्लॉग साईट सही रहेगी तो चलिए चलते हैं गाँव की तरफ.....ये ऐसे और हमजैसे लोगों के लिए विषय है जिन्हें गाँव से रूबरू होने का बहुत कम मौक़ा मिला है और जितना मिला है शायद मेरे शब्दों का सौभाग्य होगा की उन्हें एक धरातल के रूप में एक स्थान दे ,,,,,,,,जय हो

बचपन में स्कूल से गर्मी की छुट्टियाँ हुयी नहीं की हमारा टिकट कट जाता था गाँव के लिए कभी पिताजी के गाँव तो कभी ननिहाल माँ के गाँव ....कभी कभी पिताजी अपनी सरकारी गाडी से छोड़ आते थे मगर जादातर व्यस्तता के समय हमें ट्रेन या बस का सफ़र ही करना पड़ता था. मुझे बस सफ़र तक ही आनंद आता था,,,उसके बाद २ - ४ दिन एडजस्ट करने में बीतता था,.,,गाँव में शहर की तरह साफ़ सुथरी जिंदगी नहीं थी,. मगर अनुशाशन के तेहत पला बढ़ा इंसान पूर्ण स्वतंत्र हो जाए तो कुछ समय के लिए सुकून जरूर मिलता था, ना सुबह स्कूल जाने की चिंता ना पढने की ताकीद बस घूमो, खेलो, खाओ , उधम मचाओ और सो जाओ . मेरे ब्लॉग की शुरुआत गर्मी की छुट्टियों से करना है हालांकि कुछ सर्दियां भी शायद एक या दो काटी हैं गाँव में .,

इस ब्लॉग के आगामी अंकों  में किरदारों और अनुभूतियों का जमावड़ा होगा, जो आज मुझे रह रह कर याद आते हैं, एक एक शक्लें मुझे हूबहू याद हैं, उनके साथ बिताए गए पल ...कुछ रिश्तेदार कुछ बाहर के लोग सभी को अपने ब्लॉग में एक स्थान देना है. आखिर शब्दों का घर है किराया देना नहीं है बस उन्हें बा-इज्जत इसमें एक जगह देकर यादों को सुकूनियत का जामा पहनाना है.....

सबसे पहले अपने यानी पिताजी  के गाँव का रुख करना है ... और वो मेरे अगले गाँव और मैं - भाग २ में शुरू होगा /// आप सब का प्रोत्साहन जरूरी है ..... :-)



बुधवार, 2 जुलाई 2014

तुम मुझे याद आते हो


मुझे तुम याद आते हो, 
काश! मैं रोक सकती निर्मम हत्यारों को,

तुम्हारी छाँव मेरा बचपन 
निवाला खूब भाता था
तुम्हारी पत्तियों का संग
मुझे नटखट बनाता था

सुबह कलरव पछियों का
रोज मुझको जगाता था
हवा के झोंके दे थपकी
रोज मुझको सुलाता था

आज निरीह से हो तुम
ये अहसास है मुझको
मगर विश्वास है मुझको
नयी कोपल से जागोगे...

लौट आओ लौट आओ
तुम्हारी संगिनी हूँ मैं
मिलूंगी मैं येही पर ही
ज़रा सी अब बड़ी हूँ मैं

सोमवार, 30 जून 2014

फूल वाली ( ये ब्लॉग पुष्प कवित्त पर है - पर बात है फूल वाली की इसलिए .. :-) )

हर रविवार तडके मतलब सुबह पांच बजे मदिर के लिए निकलते हैं , सोचते हैं की मंदिर का विशाल कपाट हमारे ही सामने खुले , कभी कभी छह बजे ,,या फिर साढ़े  छह बजे खुल ही जाता है ,,,एक एक किलो की चाबियों से , पुजारी जी के हाथों द्वार खोलने की पहली प्रक्रिया ,,फिर अन्दर विद्युत् यंत्र चालित ड्रम , नगाड़ों की ध्वनि से माँ को आगाह करते हैं,,,फिर श्रद्धालु श्री प्रथमेश को नमन कर माँ के द्वार पर खड़े हो जाते हैं,,,पुजारी जी एक हाथ में आरती का थाल लिए लिए द्वार खोलते हैं,,,सभी दर्शनों के आतुर माँ को जी भर  देखते हैं और दिव्य आशीर्वाद की अनुभूति पाते हैं,  ( ये वाकया बैंगलोर के बनशंकरी मंदिर का है ) आज के दौर में बैंगलोर का सबसे धनी मंदिर ,,,और हो भी क्यों ना माँ जगत जननी का स्थान है , मंदिर पहले पुराना था,,,और अब बिलकुल नया नवेला सा,,,,जब मंदिर पुराना था उस समय मंदिर के सामने कई झोपडी नुमा दुकाने थी जिसमे पूजा फूल सामग्री आदि बिकती थी,,,मगर मदिर के रूप को भव्यता देने के बाद इन सब फूल वालियों को स्थान से हटा दिया गया . एक कारण और था बिलकुल मंदिर के द्वार के सामने मेट्रो स्टेशन अपने पूर्णता के दौर पर है ,,फिर कहाँ इन्हें स्थान मिलेगा,,,हाँ एक फूल वाली जरूर अपने रुतबे को बरकरार रखते हुए द्वार पर मिल ही जाती है,,,जाने कितनी दूर से ऑटो से आती है, मगर सूर्य उदय के साथ साथ ही मंदिर के प्रवेश द्वार पर विराजमान दिखती है,

सोचती हूँ ,,,हमें सुबह सुबह जाग कर नहा कर निकलने में और रास्ते भर सोते हुए जाने में ही मुश्किल होती है और ये औरत इतनी सुबह अपने फूलों के गट्ठर के साथ मुस्कराती हुयी मिलती है ,


जिस रविवार हम नहीं जा पाते अपनी भाषा में इजहार जरूर करती है,,,"याके नींन बंदिल्ला " पूजा के बाद कार के लिए (भगवान् के लिए ) उससे थोडा फूल लेने पर उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है,,,ख़ास बात सुबह पूजा के लिए हम उससे फूल नहीं लेते ,,,बाहर से लेते हैं एक दिन पहले आर्डर देकर ,,,उसे शायद कोफ़्त होती है मगर जाहिर नहीं करती,,,,हाँ कुछ मिठाइयाँ जरूर लेती है प्रसाद के,,,मैं भी उसे अच्छी अच्छी मिठाइयों के चार पांच बडे बडे पीस देती हूँ,,,सोचती हूँ माँ का आशीर्वाद है तो एक टुकडा ही काफी है हमारे लिए  मगर ये मेहनतकश औरत की खुशी अधिक जरूरी है......औरत और पुरुष दोनों ही इश्वर के नुमाइंदे हैं,,कोई किसी तरह उन्हें याद करता है कोई किसी तरह ,,,लेकिन आज के दौर में हर इंसान फूल का सौदा नहीं कर सकता ,,,ना करे ,,,लेकिन नारी को पूज्या तो समझे,,,,,माँ शक्ति की तरह ,,


शुक्रवार, 27 जून 2014

एक बूँद वेग से निकली

गंगा ये आकाश से झरती
धरा से पहले तारों जैसी
मिलने की संवेग गति में
पल पल बढ़ती आ मिल जाती

कैदी  मोती बादल के पिंजरे
उमड घुमड़ मथते रहते
गर्जन की दुन्दुभी बजी है
भय आतुर हो बूँद चली है

दिशा दिशा दामिनी चमकती
पर्वत पर प्रहार सी करती
कितने क्षण धड़कन रुकती सी
ह्रदय चीर कर रखती हो जैसे 




आज नहीं अब रुक पाएगी
मोती धारा बन जायेगी
मिलना है अब उसे फलक से
शायद उसका मीत वहीं हो

सागर नदिया ताल तलैया
बाट जोहते जाने कबसे
उथल  पुथल लहरें कहती हैं
आ री तू  हम से भी मिल ले

फिर तू भी जीवन का हक है
बन जायेगी प्राण  किसी की
मानव या इश्वर चरणों में
अर्ध्य हो शायद सूर्य  चरण में 

गुरुवार, 12 जून 2014

शाख की शर्म


अब तो शाखों को भी शर्म आने लगी है
कुत्सित इंसान की भावनाएं जलाने लगी हैं
जिन की हंसी से तरु भी झूम लेता था
आज वो इनके पास आने से कतराने लगी हैं

जिनके स्पर्श से झूमती थी डालियाँ
जिन के लम्बे पेंगों से निशा भी लम्बी हो जाती थी
चांदनी पैर पसार कर धरा पर धराशायी होती थी
वही अब चीखों का परावर्तन जारी है

तब्दीलियाँ इसान से हैवान बनने की
रवानियत स्नेह से आसुरी तरजीह की
मुस्कान बदली मर्मान्तक चीखों में
सूखती शाखों का दर्द बया करती है

मंगलवार, 10 जून 2014

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो ?

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो?
लीलती हो चिरागों को
दबे पांवों आती हो तुम
प्रलय का तांडव रचाती

ये धरा जननी तुम्हारी
हम भी तो है सगे जैसे
ग्रसित कर अपनों को ही तुम
हो विहंसती विकराल सी तुम

माना की हम ध्वंस वाहक
धरा भी है बोझ सहती
कितने घावों के विधाता
हर तरफ हम वार करते

हो सुकोमल सुरभि सुंदर
भ्रमर  पंकज तड़ागों में
मानवों का मान हो तुम
प्रकृति तुम  अब क्रूर क्यों हो ???


खेत और खलिहान जरत है

गए गए एक बरस हो गए
अब तक ना चिठिया ना पाती
सूख रही है मछरी ताल में
प्रान जरत है दिय बिन बाती

आंधी पानी रोज लपेटत
तन विहरत है पवन, मलय संग
मनवा विहग बनि , उडत पात जस
गिरत परत दुःख रोज संजोवत

निकर परी है आज बहुरिया
बीत गयो अब लाज को सावन
खेत और खलिहान जरत है
उपवन तनिक है आस बंधावत

पिया भयो दुश्यंत  सरीखो
शाकुंतल भई फिर से विरहनी
विस्मृत पांखी शाख भूल गयी
लौटगी कब सुधि ले  संगिनी

शनिवार, 24 मई 2014

हे ! पुष्प

स्वर्ण कुसुम तुम मत खिलना अब
कोई राजकुमार नहीं है
जो अपनी प्रेयसी की खातिर
ले आयेगा तुम्हें तोड़ कर

अब उपवन में बन मृग की
कस्तूरी की गंधों से सुवासित
पुष्प खिलेंगे मतवाले से
नाम गाँव कुछ पता नहीं है

बस उनको नयनो में कैद कर
बांधेंगे मन के बयार से
जब तक गाँठ खोल कर ऐसे
निशा सुवासित हम कर लेंगे

शबनम की बूंदों को छू कर
नयन निमीलित सजल बूँद से
खुशी और दुःख के मिश्रण को
ज़रा घोल कर हम पी लेंगे

हे ! वन के सुरभित आभरणित
निशा गहन या दग्ध दिवाकर
खिलना हरदम वसुन्धरा पर
रहो स्वतंत्र रहो आच्छादित

शुक्रवार, 23 मई 2014

प्रकृति का कैमरा

कितने भी तुम यन्त्र लगा लो
संचालित कर तार वार से
बिना बैटरी नहीं चलेगा
या फिर किरणों से उधार ले

कितने यंत्र रोज बनते हैं
कितनी फिल्मे ३डी, Hडी
पर क्या जीत सका है कोई
इस  प्रकृति का अपना नुस्खा

मैंने भी एक चित्र था खींचा
दो मंजिल के ऊपर जाकर
नीचे पेड़ की छाया थी जो
पत्ती पत्ते का तन हिलता

क्या प्राकृत का नया कैमरा
कितने पिक्सल का वो होगा
वही छवि गतिमान है रहती
या फिर शांत मूर्ती मौन सी

हम मानव उल्झे है ऐसे
तेरी मेरी चीज है अच्छी
पर मेरे शब्दों में गुंथकर
ऊपर वाले को भी सोचो


बुधवार, 21 मई 2014

पुष्प का जीवाश्म


दबा हुआ था पुष्प वो कबसे
मेरे हाथों से ही समर्पित
मैंने ही खुद को अर्पित कर
उसे सहेजा था जीवन भर

आज वो पन्ने फटे फटे से
झाँक रहा जीवाश्म पुष्प का
आतुर था अंतिम सांसों में
अपनी व्यथा रेख में खिंच कर

अलग नहीं थे उसके दल तब
माना की निष्प्राण नहीं था
फिर भी उसकी अंतिम इच्छा
का मुझको संज्ञान नहीं था

मैंने उसके रूप को खींचा
मन की यादों से फिर सींचा
शायद अब वो ना महकेगा
पुष्प रहेगा नाम तो उसका !

गूलर की खुशबू


याद है मुझे गाँव का घर,
चारों तरफ खेतों से घिरा हुआ
खपरैलों की छत
सामने खूबसूरत सा कुवां

कुछ दूर पर आम की बाग़,
महुवे की खुशबू से सराबोर
बढहल के फलों की मिठास खटास,
और वो कुमुदुनी का तालाब

मगर मेरा प्रिय वो अकेला पेड़
हरे हरे धान की फसल हो
या गेंहूँ , मटर ,चने से आच्छादित धरा
वो अकेला गूलर का पेड़

जाने कबसे खडा था प्रहरी की तरह
छुट्टियों में हमारे लिए तकता
हम उससे ही पहले मिलते थे
उससे पूछते थे कैसे हो तुम

ठहरना अभी सामान रख कर आयेंगे
बैठेंगे तुम्हारी छाँव में
तुम्हारे कच्चे पके फलों को चखना है
मगर इस बार अपने फूल दिखाना जरूर

ओ गूलर तुम आज होगे क्या,
मैं बहुत दूर हूँ तुमसे
तुमसे जुड़ा है मेरा बचपन
मेरा बालमन , मेरी यादें

आज भी मन पुकारता है तुम्हें
क्या तुम्हें उस जीवन से मुक्ति मिल गयी ?
क्या तुम आस पास नए जीवन में हो
मगर वो जगह !मुझे वापस आना है तुमसे मिलने


कुछ पंखुरियां फूलों की थी

कुछ पंखुरियां फूलों की थीं
बिखरी इधर उधर धरती पर
जाने किसने केश राशि से
फिसलाया था बहक बहक कर

कुछ पंखुरियां पुष्पित मन सी
महक रही थीं मन में मेरे
जाने कौन पास से   गुजरा
महक गया था उपवन तीरे

कुछ पंखुरियां जल के ऊपर
तिर कर शांत स्वच्छ मदमाती
वो अतीत की याद में डूबीं
पार उतरने को हैं आतुर

कुछ पंखुरियां महक रही हैं
पान गिलौरी के दरवाजे
अबला के श्रृंगार सजे हैं
नाम मात्र जीवन के धागे

मगर पुष्प तो पुष्प रहेगा
हो पंखुरी बिखर कर जो भी
नैन नेह तो बरसेंगे ही
कोमल तन के अंतिम पथ में

सोमवार, 19 मई 2014

सोने के झूमर हैं जैसे


सड़क निरी सोयी है कबसे
इक्का दुक्का टायर घिसती
रात में शबनम धो देगी फिर
धूल दिवस की रात को फिर से

सुबह गेंद सा सूरज होगा
कच्चे रंगों से रंगा सा
धुल जायेगी सारी लाली
भीगेगा जब जल की रश्मि से







नव श्रृंगार धरा का होगा
झूमर जब पलाश ले आये
नव्या सी धरती के ह्रदय पर
स्वर्ण भस्म सा नेह विछाये

सुरभि रात जब मस्त हुयी थी

 करके  ठिठोली पुष्प गाछ से
हंस हंस कर बिखरी थी धरा पर
रूप राशि दल के आँचल सी

पुष्प आभरण पहन शाकुंतल
मिली थी जब दुष्यंत से अपने
वही पलाश दग्ध था तब भी
सोने की चिड़िया थी शाख पर

रविवार, 18 मई 2014

मन और पलाश

 

मन पलाश बन बैठा मेरा
रहा दहकता तन शाखों पर
एक रेनू की धूसर अग्नि
बहक गया वोह संग सुरभि के

गाछ गाछ में चिंगारी है
हवा ना देना जल जाओगे
धधक रही है मन अंतस में
छुपी हुयी अग्नि बेचारी 

 

अभी तलक तो बंधी हुयी है
दल पुष्पित की  शाख जुडी है
छोड़ेगी तन जब ये अपना
उड़ जायेगी पंख बदल के

 

दावानल की ये अनुयायी
ताप है पीती दाह में जीती
बन पलाश जीवन के पथ पर
शीत अग्नि मन के गीतों सी