दबा हुआ था पुष्प वो कबसे
मेरे हाथों से ही समर्पित
मैंने ही खुद को अर्पित कर
उसे सहेजा था जीवन भर
आज वो पन्ने फटे फटे से
झाँक रहा जीवाश्म पुष्प का
आतुर था अंतिम सांसों में
अपनी व्यथा रेख में खिंच कर
अलग नहीं थे उसके दल तब
माना की निष्प्राण नहीं था
फिर भी उसकी अंतिम इच्छा
का मुझको संज्ञान नहीं था
मैंने उसके रूप को खींचा
मन की यादों से फिर सींचा
शायद अब वो ना महकेगा
पुष्प रहेगा नाम तो उसका !

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