बुधवार, 21 मई 2014

कुछ पंखुरियां फूलों की थी

कुछ पंखुरियां फूलों की थीं
बिखरी इधर उधर धरती पर
जाने किसने केश राशि से
फिसलाया था बहक बहक कर

कुछ पंखुरियां पुष्पित मन सी
महक रही थीं मन में मेरे
जाने कौन पास से   गुजरा
महक गया था उपवन तीरे

कुछ पंखुरियां जल के ऊपर
तिर कर शांत स्वच्छ मदमाती
वो अतीत की याद में डूबीं
पार उतरने को हैं आतुर

कुछ पंखुरियां महक रही हैं
पान गिलौरी के दरवाजे
अबला के श्रृंगार सजे हैं
नाम मात्र जीवन के धागे

मगर पुष्प तो पुष्प रहेगा
हो पंखुरी बिखर कर जो भी
नैन नेह तो बरसेंगे ही
कोमल तन के अंतिम पथ में

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