मंगलवार, 10 जून 2014

खेत और खलिहान जरत है

गए गए एक बरस हो गए
अब तक ना चिठिया ना पाती
सूख रही है मछरी ताल में
प्रान जरत है दिय बिन बाती

आंधी पानी रोज लपेटत
तन विहरत है पवन, मलय संग
मनवा विहग बनि , उडत पात जस
गिरत परत दुःख रोज संजोवत

निकर परी है आज बहुरिया
बीत गयो अब लाज को सावन
खेत और खलिहान जरत है
उपवन तनिक है आस बंधावत

पिया भयो दुश्यंत  सरीखो
शाकुंतल भई फिर से विरहनी
विस्मृत पांखी शाख भूल गयी
लौटगी कब सुधि ले  संगिनी

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