धरा से पहले तारों जैसी
मिलने की संवेग गति में
पल पल बढ़ती आ मिल जाती
कैदी मोती बादल के पिंजरे
उमड घुमड़ मथते रहते
गर्जन की दुन्दुभी बजी है
भय आतुर हो बूँद चली है
दिशा दिशा दामिनी चमकती
पर्वत पर प्रहार सी करती
कितने क्षण धड़कन रुकती सी
ह्रदय चीर कर रखती हो जैसे
आज नहीं अब रुक पाएगी
मोती धारा बन जायेगी
मिलना है अब उसे फलक से
शायद उसका मीत वहीं हो
सागर नदिया ताल तलैया
बाट जोहते जाने कबसे
उथल पुथल लहरें कहती हैं
आ री तू हम से भी मिल ले
फिर तू भी जीवन का हक है
बन जायेगी प्राण किसी की
मानव या इश्वर चरणों में
अर्ध्य हो शायद सूर्य चरण में


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