गुरुवार, 12 जून 2014

शाख की शर्म


अब तो शाखों को भी शर्म आने लगी है
कुत्सित इंसान की भावनाएं जलाने लगी हैं
जिन की हंसी से तरु भी झूम लेता था
आज वो इनके पास आने से कतराने लगी हैं

जिनके स्पर्श से झूमती थी डालियाँ
जिन के लम्बे पेंगों से निशा भी लम्बी हो जाती थी
चांदनी पैर पसार कर धरा पर धराशायी होती थी
वही अब चीखों का परावर्तन जारी है

तब्दीलियाँ इसान से हैवान बनने की
रवानियत स्नेह से आसुरी तरजीह की
मुस्कान बदली मर्मान्तक चीखों में
सूखती शाखों का दर्द बया करती है

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