मंगलवार, 10 जून 2014

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो ?

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो?
लीलती हो चिरागों को
दबे पांवों आती हो तुम
प्रलय का तांडव रचाती

ये धरा जननी तुम्हारी
हम भी तो है सगे जैसे
ग्रसित कर अपनों को ही तुम
हो विहंसती विकराल सी तुम

माना की हम ध्वंस वाहक
धरा भी है बोझ सहती
कितने घावों के विधाता
हर तरफ हम वार करते

हो सुकोमल सुरभि सुंदर
भ्रमर  पंकज तड़ागों में
मानवों का मान हो तुम
प्रकृति तुम  अब क्रूर क्यों हो ???


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