रविवार, 10 जुलाई 2016

गाँव और मैं - भाग २ (विनोद मेरा भाई और गाँव का स्कूल )


 
गाँव का नाम सुनते ही  कच्चे घर  , खुद के  बनाए रंगों  से  लिपे  पुते  हुए, हर  घर   के  आगे,  आम,कटहल और जाने  क्या क्या  हाँ  याद  आया  बेर  और  करौंदे  की झाड़ियाँ नुमा  पेड़, बस ये  कंटीले वाले घर  के  पीसी  ही  मिलते  थे,  और  फिर उपलों  की  अजीब  सी  खुशबू  , गाय  भैंसों  के  घर  जिसमे  हम  लुका  छिपी  खेलते  थे, गर्मी  की  छुट्टियां  और  हमारा  गाँव  जाना  निश्चित  हो  जाता  था, आखिर  बाबा  , दादी, नाना , नानी , मामा , मामी  तक  पहुँचना  परिवार  का  फर्ज   माना  जाता  है  .
जैसा  की  मैंने  ब्लॉग  के  पहले भाग  में    उल्लेख  किया  है   की  मैं   अपने  उन  किरदारों   को   यहाँ  लाऊंगी  जिनके   करीब  मैं   आज  भी   हूँ,  आज जब  भी  मेरी  बातें  होती  हैं  मुझे  वो  सब कुछ वैसे  ही  दृश्यगत  हो  जाता  है  जैसे  वो  मेरा   आज  हो. मुझे   याद  है...बड़ा   सा  घर ..कुछ  पक्की  मिटटी  का  , कुछ  इंटों  का , कहीं  कहीं  नक्काशी  वाली   दीवार, घर  के  दरवाजे  पर  शेरो  की  आकृति  वाली  मूर्तियाँ,  बाहर  एक   बड़ा सा  तख़्त ..जिस   पर  दिन  में  बुजुर्गों  का  जमावड़ा  ..तख़्त  के  ठीक  ऊपर  दशहरी  आमों  का  पेड़ , और  हाँ  मेंन  दरवाजा   बडे  बडे  कुंडो वाला  कुछ  कुछ  बुलंद  दरवाजे  सा  मगर  उससे  बहुत  छोटा   ....बहुत  सारे  मनपसंद  पेड़  जिनके  नीचे  हम  भी  भाई   बहनों  के  साथ  छोटे  तख़्त  पर  खेलते  थे. कुछ  चिड़ियों  के  घोसलों  पर  अपना  ज्ञान  बघारते  थे....वहाँ  सबसे  प्रिय  साथी  मेरे  चाचा  का  बेटा  विनोद...हम  दोनों  दिन  भर  साथ  साथ  घूमते  थे . आमों   के  बाग़  में  दिन  भर  चक्कर  लगाना ,  फिर  आमों  को  लाकर  भूसे  के  कमरे में  छुपाना , और विनोद  के  रखे  आमों  को  चुरा  कर  खा  जाना,  ,,,ऐसी  बात   नहीं थी  की  आमों  की  कमी  थी, आँगन  के  बडे कडाहे  में  पानी  के  बीच  कम  से  कम .६०   से  ७०  आमों  को  रोज  ठंडा  किया  जाता  था,,,मगर  चोरी  करके  आम  खाना  जादा  मीठा  लगता  था,. खैर .....हम  और  विनोद  दोपहर  में  अक्सर  नहर  के  ऊपर  बनी  छोटी  सी  पुलिया  पर  बैठ  जाते   थे  ,  नहर  के  पानी  की  इक्का  दुक्का  मछलियों  का  ओपरेशन  भी करते   थे,  मैं  और विनोद  उस  पुलिया  से  उतर  कर  बहते  हुए   छिछले  पानी  से  मछलियों को  निकाल कर  उन  अपना  शोध कर अपने  अपने  ज्ञान  की  शेखी  जरूर  मारते   थे,  और  एक  खेल   हम  घंटों  खेलते  थे...कुछ  दृश्यों  पर  हिंट  देकर   उसे  बताने  को  कहते  थे...जैसे  की  " एक गोल  सा  मगर  नुकीला  भी ..हवा  में  एक डंडी  के  सहारे  लटका  हुआ  " पीपल  का  पत्ता ,,,और  ना  जाने  कितनी  दृश्यगत  चीजों  के  बारे  में,,,,

और  मुझे  उसका  गाँव  का  स्कूल  बहुत  प्रिय  था... छोटे  छोटे  कमरों  का  स्कूल ,,,मास्टर  लोग  बस  रूलर  लेकर  क्लास  में  आते  थे ,,और  टाइम  पास  करके  चले  जाते  थे,  रोज  सोयाबीन  का  हलवा  गन्ने  के  रस  में पगा  हुआ  जरूर  मिलता  था,,, दो  तीन हैण्ड प्म्प  जिस  पर  बच्चे  झूलते  जादा  थे  पानी  कम  पीते  थे,,,,मैं  वहां  जब  अपनी  इंग्लिश  पोएम्स सुनाती  थी  तो  सब बडे ही  कौतूहल  से  सुनते  थे,,,,वहाँ  इंग्लिश  क्लास  सिक्स से  पढ़ाई  जाती  थी  वो  भी  शुरुआत  से,,,A B C D से   जहां  हमने  5TH क्लास  तक  जाने कितने  प्ले  और भाषण बाजी  कर  ली थी...मगर  वहाँ  का  सीधा  साधा  माहौल  , भोले  भाले  बच्चे  , मुझे  बहुत  अछे  लगते  थे,,,

जब  तक  गाँव  में  रहती  थी खूब  उधम बाजी  ,  दिन भर  धुल  मिट्टी  में  खेलना,,,२  -  २  आमों  की  अपनी  बाग़  होते  हुए  भी   दूसरों  के  पेड़  के  आम  बहुत  पसंद  थे,,,जिनके   नाम  ,,,सुभाव..नहर  के  पास  था, नेबुहवा ...मझली   दादी  ( जिनका  जिक्र  आगे  खंड  में  होगा ) के  घर  के  पास.., जल्लाद  आम.., करियवा,,,आम ,,ये   सब  नाम और  इनकी  खासियत  गजब  थी,,,येही  सब  तो  बताना  है  मुझे,,,संजोना  है  शब्दों  में,,,,मैं  रहूँ  या  ना  रहूँ  शब्द  जरूर  रहेंगे,,,,

मैं  विनोद...गाँव  की  सीमा  तक  खूब  झगडा  करते थे,,,मगर  जब लौटना  होता  था,,,उदास  हो  जाता  था,,,१५  वर्ष  दुबई  में था,,,अब  घर  आ  गया  है,,,,मुझे  फिर  से  जाना  है  मिलने,,,माना  की  सबकुछ  बदल  चुका  है  मगर  धरती  वही,,,है... धरती  वही  है   धरती  वही  है.....

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

गाँव और मैं - भाग १


 vichaarveethika.blogspot.in/(कल्पना की उड़ान शब्दों में)" या  "paankhiaurman.blogspot.in (प्रवाह जो रुकता नहीं)" जैसे सम्रिध्ह ब्लाग्स ( रचनाओं का अम्बार है इनमे ) को ना चुनकर मैंने " मन और पलाश " को चुना इस विषय की श्रृंखला के लिए...वैसे मैंने सोचा था की मन और पलाश में सुगंध और पुष्प संसार से सुवासित कवित्त ही होगा मगर ध्यान से सोचा तो येही लगा की आखिर गाँव की माटी और उसकी भीनी भीनी खुशबू से तरबतर वातावरण पलाश और गुलमोहर के रंगों सी यादों के लिए मेरा येही ब्लॉग साईट सही रहेगी तो चलिए चलते हैं गाँव की तरफ.....ये ऐसे और हमजैसे लोगों के लिए विषय है जिन्हें गाँव से रूबरू होने का बहुत कम मौक़ा मिला है और जितना मिला है शायद मेरे शब्दों का सौभाग्य होगा की उन्हें एक धरातल के रूप में एक स्थान दे ,,,,,,,,जय हो

बचपन में स्कूल से गर्मी की छुट्टियाँ हुयी नहीं की हमारा टिकट कट जाता था गाँव के लिए कभी पिताजी के गाँव तो कभी ननिहाल माँ के गाँव ....कभी कभी पिताजी अपनी सरकारी गाडी से छोड़ आते थे मगर जादातर व्यस्तता के समय हमें ट्रेन या बस का सफ़र ही करना पड़ता था. मुझे बस सफ़र तक ही आनंद आता था,,,उसके बाद २ - ४ दिन एडजस्ट करने में बीतता था,.,,गाँव में शहर की तरह साफ़ सुथरी जिंदगी नहीं थी,. मगर अनुशाशन के तेहत पला बढ़ा इंसान पूर्ण स्वतंत्र हो जाए तो कुछ समय के लिए सुकून जरूर मिलता था, ना सुबह स्कूल जाने की चिंता ना पढने की ताकीद बस घूमो, खेलो, खाओ , उधम मचाओ और सो जाओ . मेरे ब्लॉग की शुरुआत गर्मी की छुट्टियों से करना है हालांकि कुछ सर्दियां भी शायद एक या दो काटी हैं गाँव में .,

इस ब्लॉग के आगामी अंकों  में किरदारों और अनुभूतियों का जमावड़ा होगा, जो आज मुझे रह रह कर याद आते हैं, एक एक शक्लें मुझे हूबहू याद हैं, उनके साथ बिताए गए पल ...कुछ रिश्तेदार कुछ बाहर के लोग सभी को अपने ब्लॉग में एक स्थान देना है. आखिर शब्दों का घर है किराया देना नहीं है बस उन्हें बा-इज्जत इसमें एक जगह देकर यादों को सुकूनियत का जामा पहनाना है.....

सबसे पहले अपने यानी पिताजी  के गाँव का रुख करना है ... और वो मेरे अगले गाँव और मैं - भाग २ में शुरू होगा /// आप सब का प्रोत्साहन जरूरी है ..... :-)



बुधवार, 2 जुलाई 2014

तुम मुझे याद आते हो


मुझे तुम याद आते हो, 
काश! मैं रोक सकती निर्मम हत्यारों को,

तुम्हारी छाँव मेरा बचपन 
निवाला खूब भाता था
तुम्हारी पत्तियों का संग
मुझे नटखट बनाता था

सुबह कलरव पछियों का
रोज मुझको जगाता था
हवा के झोंके दे थपकी
रोज मुझको सुलाता था

आज निरीह से हो तुम
ये अहसास है मुझको
मगर विश्वास है मुझको
नयी कोपल से जागोगे...

लौट आओ लौट आओ
तुम्हारी संगिनी हूँ मैं
मिलूंगी मैं येही पर ही
ज़रा सी अब बड़ी हूँ मैं

सोमवार, 30 जून 2014

फूल वाली ( ये ब्लॉग पुष्प कवित्त पर है - पर बात है फूल वाली की इसलिए .. :-) )

हर रविवार तडके मतलब सुबह पांच बजे मदिर के लिए निकलते हैं , सोचते हैं की मंदिर का विशाल कपाट हमारे ही सामने खुले , कभी कभी छह बजे ,,या फिर साढ़े  छह बजे खुल ही जाता है ,,,एक एक किलो की चाबियों से , पुजारी जी के हाथों द्वार खोलने की पहली प्रक्रिया ,,फिर अन्दर विद्युत् यंत्र चालित ड्रम , नगाड़ों की ध्वनि से माँ को आगाह करते हैं,,,फिर श्रद्धालु श्री प्रथमेश को नमन कर माँ के द्वार पर खड़े हो जाते हैं,,,पुजारी जी एक हाथ में आरती का थाल लिए लिए द्वार खोलते हैं,,,सभी दर्शनों के आतुर माँ को जी भर  देखते हैं और दिव्य आशीर्वाद की अनुभूति पाते हैं,  ( ये वाकया बैंगलोर के बनशंकरी मंदिर का है ) आज के दौर में बैंगलोर का सबसे धनी मंदिर ,,,और हो भी क्यों ना माँ जगत जननी का स्थान है , मंदिर पहले पुराना था,,,और अब बिलकुल नया नवेला सा,,,,जब मंदिर पुराना था उस समय मंदिर के सामने कई झोपडी नुमा दुकाने थी जिसमे पूजा फूल सामग्री आदि बिकती थी,,,मगर मदिर के रूप को भव्यता देने के बाद इन सब फूल वालियों को स्थान से हटा दिया गया . एक कारण और था बिलकुल मंदिर के द्वार के सामने मेट्रो स्टेशन अपने पूर्णता के दौर पर है ,,फिर कहाँ इन्हें स्थान मिलेगा,,,हाँ एक फूल वाली जरूर अपने रुतबे को बरकरार रखते हुए द्वार पर मिल ही जाती है,,,जाने कितनी दूर से ऑटो से आती है, मगर सूर्य उदय के साथ साथ ही मंदिर के प्रवेश द्वार पर विराजमान दिखती है,

सोचती हूँ ,,,हमें सुबह सुबह जाग कर नहा कर निकलने में और रास्ते भर सोते हुए जाने में ही मुश्किल होती है और ये औरत इतनी सुबह अपने फूलों के गट्ठर के साथ मुस्कराती हुयी मिलती है ,


जिस रविवार हम नहीं जा पाते अपनी भाषा में इजहार जरूर करती है,,,"याके नींन बंदिल्ला " पूजा के बाद कार के लिए (भगवान् के लिए ) उससे थोडा फूल लेने पर उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है,,,ख़ास बात सुबह पूजा के लिए हम उससे फूल नहीं लेते ,,,बाहर से लेते हैं एक दिन पहले आर्डर देकर ,,,उसे शायद कोफ़्त होती है मगर जाहिर नहीं करती,,,,हाँ कुछ मिठाइयाँ जरूर लेती है प्रसाद के,,,मैं भी उसे अच्छी अच्छी मिठाइयों के चार पांच बडे बडे पीस देती हूँ,,,सोचती हूँ माँ का आशीर्वाद है तो एक टुकडा ही काफी है हमारे लिए  मगर ये मेहनतकश औरत की खुशी अधिक जरूरी है......औरत और पुरुष दोनों ही इश्वर के नुमाइंदे हैं,,कोई किसी तरह उन्हें याद करता है कोई किसी तरह ,,,लेकिन आज के दौर में हर इंसान फूल का सौदा नहीं कर सकता ,,,ना करे ,,,लेकिन नारी को पूज्या तो समझे,,,,,माँ शक्ति की तरह ,,


शुक्रवार, 27 जून 2014

एक बूँद वेग से निकली

गंगा ये आकाश से झरती
धरा से पहले तारों जैसी
मिलने की संवेग गति में
पल पल बढ़ती आ मिल जाती

कैदी  मोती बादल के पिंजरे
उमड घुमड़ मथते रहते
गर्जन की दुन्दुभी बजी है
भय आतुर हो बूँद चली है

दिशा दिशा दामिनी चमकती
पर्वत पर प्रहार सी करती
कितने क्षण धड़कन रुकती सी
ह्रदय चीर कर रखती हो जैसे 




आज नहीं अब रुक पाएगी
मोती धारा बन जायेगी
मिलना है अब उसे फलक से
शायद उसका मीत वहीं हो

सागर नदिया ताल तलैया
बाट जोहते जाने कबसे
उथल  पुथल लहरें कहती हैं
आ री तू  हम से भी मिल ले

फिर तू भी जीवन का हक है
बन जायेगी प्राण  किसी की
मानव या इश्वर चरणों में
अर्ध्य हो शायद सूर्य  चरण में 

गुरुवार, 12 जून 2014

शाख की शर्म


अब तो शाखों को भी शर्म आने लगी है
कुत्सित इंसान की भावनाएं जलाने लगी हैं
जिन की हंसी से तरु भी झूम लेता था
आज वो इनके पास आने से कतराने लगी हैं

जिनके स्पर्श से झूमती थी डालियाँ
जिन के लम्बे पेंगों से निशा भी लम्बी हो जाती थी
चांदनी पैर पसार कर धरा पर धराशायी होती थी
वही अब चीखों का परावर्तन जारी है

तब्दीलियाँ इसान से हैवान बनने की
रवानियत स्नेह से आसुरी तरजीह की
मुस्कान बदली मर्मान्तक चीखों में
सूखती शाखों का दर्द बया करती है

मंगलवार, 10 जून 2014

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो ?

हे ! प्रकृति तुम क्रूर क्यों हो?
लीलती हो चिरागों को
दबे पांवों आती हो तुम
प्रलय का तांडव रचाती

ये धरा जननी तुम्हारी
हम भी तो है सगे जैसे
ग्रसित कर अपनों को ही तुम
हो विहंसती विकराल सी तुम

माना की हम ध्वंस वाहक
धरा भी है बोझ सहती
कितने घावों के विधाता
हर तरफ हम वार करते

हो सुकोमल सुरभि सुंदर
भ्रमर  पंकज तड़ागों में
मानवों का मान हो तुम
प्रकृति तुम  अब क्रूर क्यों हो ???